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समाज में बढ़ती हिंसा, सोशल मीडिया और फेक न्यूज़: क़ानूनी प्रतिक्रिया और प्रेस की स्वतंत्रता (तीसरा भाग)

May 9, 2020Covid SeriesBy wp-admin

सरकार को फेक न्यूज़ के तंत्र को रोकने के लिए अन्य प्रभावी उपायों पर ध्यान देना चाहिए, सोशल मीडिया में ऐसे बदलाव पत्रकारों को अधिक खतरे डाल सकते हैं.

लेखक- आसिफ इक़बाल , दिनांक-9 मई, 2020

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

निष्पक्ष पत्रकारिता किसी भी लोकतंत्र के फलने-फूलने के लिए महत्तपूर्ण है. हाल के दिनों में ये देखा जा रहा है कि अधिकतर पत्रकार सत्ता पक्ष का शंख बजा रहे हैं. सत्ता पक्ष को छोड़ कर विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को देशविरोधी बता कर उन्हें दबाने का प्रयास कर रहे हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वाली सरकार के द्वारा पास किये गए क़ानून के खिलाफ़ नाटक करने के लिए, बीदर के विध्यालय के एक छात्र पर देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर के गिरफ्तार कर लिया गया. न्यूज़लांड्री में रमित वर्मा ने, 4 मुख्यधारा के न्यूज़ चैनल्स- आज तक, न्यूज़18, जी न्यूज़ और इंडिया टीवी- पर 2019 में हुए 202 प्राइम टाइम डिबेट का विश्लेषण किया है. रमित अपने विश्लेषण में बताते हैं, 202 में से 79 डिबेट पाकिस्तान को ले कर हुए हैं, विपक्ष पर 66 डिबेट में हमला किया गया, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी की तारीफ़ 66 डिबेट हुए. राम मंदिर पर 14, जबकि अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, शिक्षा और किसानों के मुद्दे पर एक भी डिबेट नहीं किया गया.

किसी भी लोकतंत्र में अगर पत्रकार लोगों की कहानी कहते-कहते खुद कहानी का पात्र हो जाये, तो यह उस लोकतंत्र के  लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट के अनुसार, भारत में, सिर्फ 2017 में 46 हमले हुए हैं और 11 पत्रकारों की हत्या हुई है. 11 सितम्बर 2017 को साप्ताहिक पत्रिका ‘लंकेश पत्रिका’ की संपादक गौरी लंकेश की बंगलोर में उनके घर में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. उनकी पत्रिका को सरकार की आलोचना करने के लिए जाना जाता था. ‘दिन रात’ के लिए काम करने वाले संताणु भाव्मिक्क की त्रिपुरा में हत्या कर दी गयी थी, वो दो अलग-अलग समुदायों के बीच की हिंसा की रिपोर्टिंग कर रहे थे. ऐसे समय में जब पत्रकारों पर हमल तीव्र होते जा रहे हैं, तो उनके सूचनाओं के आदान-प्रदान के माध्यम की सुरक्षा को ले कर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. टेक्नोलॉजी के प्रभाव से आज के समय में कोई भी अछूता नहीं है, और पत्रकार भी इन्हीं माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं. अधिकतर पत्रकार सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए व्हाट्सएप्प जैसे प्लेटफार्म का उपयोग करते हैं. हाल ही में व्हाट्सएप्प, जो कि ख़ुद के चैट को एन्क्रिप्टेड होने का दावा करता है, लेकिन दर्जनों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के फ़ोन को इजराइली सॉफ्टवेर, ‘पेग्सेस’ का उपयोग कर उनके व्हाट्सएप्प से ले कर उनके फ़ोन तक को हैक कर लिया गया था. इस में मंदीप अजमल खान, सीमा आजाद सहित अन्य बड़े अधिकारकर्ताओं के नाम शामिल थे.

बताया जाता है के देश में हो रही लिंचिंग का कारण सोशल मीडिया के द्वारा फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार है. सरकार भी इस के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्मस को ज़िम्मेदार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रही है. सरकार ने आईटी एक्ट, 2000 में इन्टरमीडीअरी- व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्विटर इत्त्यादी- को ले कर कुछ बदलाव प्रस्तावित किये हैं जिस मेंएन्क्रिप्शन ख़त्म, मूल सन्देश के रचनाकार तक पहुँचने और आरटीफिशिअल इंटेलीजेन्स के द्वारा‘कंटेंट मॉडरेशन’ जैसे प्रस्ताव भी शामिल हैं. पत्रकारों को भय है कि अगर ये बदलाव पारित कर दिए जाते हैं. इस का उपयोग सरकार अपने ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को दबाने के लिए कर सकती है. पत्रकारों पर आसानी से नज़र भी रखी जा सकती है.

बढ़ सकता है जान को ख़तरा:

पत्रकार इन बदलावों को ले कर सहज महसूस नहीं कर रहे हैं.पत्रकारों और उनके सूत्रों के बीच का संबंध विश्वास के धागों से बंधा होता है.उनके संबंधों पर किसी तरह की निगरानी से दोनों के ऊपर ख़तरे बढ़ जायेंगे. पत्रकारों को लगता है के ऐसे बदलावों से सरकारपत्रकारों पर नज़र रखने के लिए उपयोग कर सकती है.हमें ये बात समझना होगा के सत्तापक्ष, कॉर्पोरेट और माफियाजब एक पत्रकार की आवाज़ दबाने का प्रयास करता है, तो उससे सिर्फ एक पत्रकार की आवाज़ ही नहीं दबते, बल्कि उस के साथ-साथ हर वो मुद्दे भी दब जाते हैं जो वो पत्रकार समाज के पिछड़े और शोषित वर्ग के लिए उठाने का प्रयास कर रहा है. बिहार से, द वायर के लिए फ्रीलान्स करने वाले पत्रकार उमेश कुमार राय कहते हैं कि दो पत्रकारों या पत्रकार और सूत्रों में, बहुत सी महत्तवपूर्ण सूचनाओं का आदान-प्रदान होता रहता है. ये सूचनाएं कोई और भी देखने लगे तो ग़लत तो होगा, ख़तरे भी बढ़ जायेंगे. वो पूछते हैं, “अगर सरकार आप के मोबाइल में घुस जाये तो क्या होगा?”

वहीं लखनऊ के पत्रकार सौरभ शर्मा, उमेश की बातों से सहमत नज़र आते हैं. वो कहते हैं, “अगर ऐसा हुआ तो सूत्रों की जान को ख़तरा हो जायेगा और पत्रकारों को भी”. वो आगे कहते हैं, “अभी व्हाट्सएप्प स्नूपिंग का केस देख लीजिये, छत्तीसगढ़ में मैं जिन लोगों के साथ काम कर रहा था, उनके फ़ोन की भी स्नूपिंग की गयी थी.” महारष्ट्र के पार्थ एम्एन इस बात को ही आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “ये चाइना के जैसा निगरानी रखने का तरीका है. कोई भी पत्रकार अगर कोई संवेदनशील या इन्वेस्टीगेटिव रिपोर्टिंग कर रहा होगा, उस के सूत्र ट्रेस किये जा सकते हैं. उनकी जान को ख़तरा बढ़ जायेगा.”

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

वहीं लखनऊ के ही, गाँव कनेक्शन में काम करने वाले पत्रकार, रणविजय कुछ असहमत नज़र आते हैं. वह कहते हैं कि सरकार को अगर किसी पत्रकार से बदला ही लेना है तो वो ले ही लेगी. अभी भी आप देख रहे हैं के66A को उच्चतम न्यायलय के ख़त्म करने केबावजूद भी इस क़ानून का उपयोग कर के पत्रकारों को परेशान किया ही जा रहा है. वो कहते हैं, “इससे फेक न्यूज़ पर रोक लगाने में सहयता मिलेगी. ये राहत की बात है.”

कौन फैला रहा है फेक न्यूज़:

अधिकतर पत्रकार समझते हैं कि फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार में एक बड़ा हिस्सा सत्तापक्ष की तरफ से फैलाया जा रहा है. झूठी ख़बरो का सहारा ले कर विपक्ष को बदनाम किया जा रहा है. दुष्प्रचार का सहारा ले कर पत्रकारों को बदनाम किया जा रहा है. उमेश कहते हैं, “सन्दर्भ बदल कर साम्प्रदायिक सन्देश फैलाये जाते हैं. बतलाया जाता है कि पश्चिम बंगाल में किसी मुसलमान ने किसी हिन्दू की हत्या कर दी, जबकि ऐसी अधिकतर खबरें झूठी होती है. ऐसे संदेशों से किसको लाभ हो रहा है, हम सब को पता है. भारतीय जनता पार्टी ऐसी कामों में बहुत आगे है.”

पार्थ एम्एन कहते हैं, “अगर सरकार, फेक न्यूज़ को रोकना चाहती है तो पहले भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल को बंद करे, सब से अधिक फेक न्यूज़ वहीं से उत्पन्न होते हैं.”वहीं रणविजय कहते हैं, “कुछ फेक न्यूज़ तो अपने आप फैलते हैं, मगर अधिकतर हिस्सा सुन्योजित तरीकेसे किसी धर्म, जाती या वर्ग के खिलाफ़ फैलाया जाता है.”

वहीं सौरभ शर्मा कहते हैं के लिंचिंग कोई नयी घटना नहीं है. फेक न्यूज़ और सोशल मीडिया के पहले भी लिंचिंग होती रही हैं. लिंचिंग के लिए सोशल मीडिया को ज़रुरत से अधिक ज़िम्मेदार मानना ठीक नहीं है. फेक न्यूज़ एक सुनियोजित ढंग से फैलाया जाता है. फेक न्यूज़ बनाने से लेकर उसे फैलाने तक, उसके फैलाने से लेकर लोगों के आम बात-चीत में उस को मानकीकरण करने तक, और मानकीकरण से विचारधारा में बदलने तक, संरचनातमक ढंग से किया जाता है. वह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता ऐसे करने से लिंचिंग जैसी घटनाएँ रुकेंगी,” वो सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए आगे जोड़ते हैं, “हम सब जानते हैं फेक न्यूज़ कौन फैला रहा है, जब सरकार खुद सबसे अधिक फैला रही है, और इस का सबसे अधिक लाभ भी उठा रही है, तो वो क्या रोकेगी?”.

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरा:

ऐसे समय में जब बोलने की आज़ादी पर सब से अधिक हमले हो रहे हैं. हर तरह के लोकतान्त्रिक संस्थानों को कमज़ोर किया जा रहा है. छोटी-छोटी राजनीतिक गतिविधि करने वालों पर भी देशद्रोह जैसेमुक़दमा चलाया जा रहा है. फेसबुक पर पोस्ट लिखने मात्र के कारण लोगों पर मुक़दमा दर्ज किया जा रहा है. विपक्षी दलों के नेता को जेल में डाला जा रहा है. सरकार हर असहमत होने वाली आवाजों को कुचलने का प्रयास कर रही है. पत्रकार ऐसी स्थिति में अपने आप को और कठिन हालात में पा रहे हैं. वो मानते हैं के कानून में ऐसे बदलाव ला कर, सरकार और अधिक निगरानी रखने का काम करेगी. उमेश कुमार कहते हैं, “कंटेंट मॉडरेशन तो ठीक है, अगर कोई कंटेंट समाज में अराजकता उत्पन्न कर सकता है, उसे तो हटाना ही चाहिए लेकिन सवाल सरकार की मंशा का है. ये सरकार जो फेसबुक पोस्ट के कारण भी देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर देती है तो इस का गलत उपयोग नहीं करेगी, इस की उम्मीद कम ही लगती है.”

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

रणविजय कहते हैं, “फेक न्यूज़ समस्या ज़रूर है, इस को रोकने का उपाय भी ज़रूरी है. अब सवाल ये है के ये कौन तय करेगा कि कौनसा कंटेंट ठीक है और कौनसा ग़लत, किस को हटाना चाहिए और किस को नहीं. जो कंटेंट हटा रहा है वो कौनसी विचारधारा के हैं, इस को ले कर पारदर्शिता बहुत ज़रूरी है,” वो आगे कहते हैं, “सरकार अपने से असहमत होने वाले हर आवाज़ को अगर देशद्रोही समझ ले तो क्या होगा. सोशल मीडिया पर न्यूज़ वेबसाइट अपनी न्यूज़ अपलोड करना भी कठिन हो जायेगा.” वहीं पार्थ कहते हैं, “इस सरकार का विश्वास नहीं किया जा सकता कि लोगों के भला के लिए सोचेगी, सरकार प्राइवेसी खत्म करना चाह रही है. बस.”

सौरभ शर्मा कहते हैं के ऐसा करने से असहमति वाली सारी आवाजें दब जयेंगी, विपक्ष ख़त्म हो जायेगा और जब विपक्ष ख़त्म हो जायेगा तो दमन के कारण होने वाला आन्दोलन ख़त्म हो जायेगा. वह आगे कहते हैं, “21वीं सदी में हम जी रहे हैं, इन्टरनेट पर ऐसे सेंसरशिप की जाएगी और हर तरह की आवाज़ को दबाने का प्रयास किया जायेगा तो हमें फिर सूचनाएं पहुंचाने के लिए खम्भा पत्रकारिका का सहारा लेना पड़ेगा. गलियों में इश्तेहार लगाने पड़ेंगे. पोस्टर चिपकाने पड़ेंगे और सड़कों पर रातों में सूचनाएं लिख कर लोगों को जानकारी देनी पड़ेगी. सूचना पहुंचाना छोड़ तो नहीं सकते हैं.”

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