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समाज में बढ़ती हिंसा, सोशल मीडिया और दुष्प्रचार: क़ानूनी प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (चौथा भाग)

May 9, 2020Covid SeriesBy wp-admin

लिंचिंग एक विशेष प्रकार की राजनीति से प्रभावित होती है, जिसका हल सोशल मीडिया के नियमों में बदलाव लाकर नहीं किया जा सकता.

लेखक- आसिफ इक़बाल , दिनांक-9 मई, 2020

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

“मर्ज़ कहीं और है दवा कहीं और ढूंढ रही है सरकार,” यह बात रिहाई मंच के सचिव राजीव यादव ने आईटी एक्ट, 2000 में इंटरमेडियरी के दिशा-निर्देशों में सरकार के द्वारा किये जा रहे रहे बदलाव के संदर्भ में कही. राजीव आगे कहते हैं, “लिंचिंग के लिए फेक न्यूज़ और सोशल मीडिया से कहीं अधिक ज़िम्मेदार राजनीतिक वातावरण है. जिस तरह से लिंचिंग करने वालों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त उसे सोशल मीडिया के दिशा-निर्देशों को बदल कर नहीं  रोका जा सकता.”

रिहाई मंच मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली एक संगठन है, जो पिछले कई वर्षों से लिंचिंग, आतंकवाद के नाम फ़र्ज़ी मुक़दमे जैसे मुद्दों पर काम करती रही है. और पुलिस की कार्यवाही पर सवाल उठाने का काम भी सोशल मीडिया के माध्यम से करती है.

भीड़ के द्वारा हत्त्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही है. अभी हाल ही में पालघर में भीड़ ने साधुओं की, पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर हत्या कर दी. 2017 में तो ऐसी सब से अधिक घटनाएँ दर्ज की गयी. बच्चा चोरी के नाम पर, गाय तस्करी, या गाय का माँस खाने के संदेह पर हर तरफ से भीड़ के द्वारा हत्त्याएं जैसी घटनाएँ सामने आ रहीं थी. ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार पर भी लगातार दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है. सरकार ने इन घटनाओं के लिए इंटरमेडियरी जैसे व्हाट्सऐप, फेसबुक इत्यादि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हो रहे दुस्प्रचार को ज़िम्मेदार ठहरा का 2018 में इनके दिशा-निर्देशों में बदलाव प्रस्तावित किया था. सोशल मीडिया मैसेंजिंग एप्प जैसे व्हाट्सएप के एन्क्रिप्शन को खत्म करने, किसी आपत्तिजनक सन्देश की संरचना करने वाले व्यक्ति तक की पहुँच, और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के माध्यम से सोशल मीडिया पर फ़िल्टर लगाने की बात शामिल है.

राजीव कहते हैं, “राजनीति तय करती हैं कि समाज कैसा बनेगा,” वह आगे जोड़ते हैं, “आप देखेंगे कि जहाँ भी लिंचिंग जैसी घटनाएँ हुई हैं, अक्सर लिंचिंग करने वालों ने उसकी वीडियो बना कर सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया है. दरअसल लिंचिंग के पीछे एक ख़ास क़िस्म की राजनीति है. अक्सर लिंचिंग करने वालों को ऐसा लगता है कि कोई अगर द्वेषपूर्ण भाषण देकर सूबे का मुख्यमंत्री या देश का प्रधान मंत्री बन सकता है, तो वह भी कुछ न कुछ अपने क्षेत्र में राजनीतिक पाँव तो जमा सकता है.”

“बढ़ सकता खतरा…”

वह आगे सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, “सरकार की मंशा साफ़ है, अपने खिलाफ उठने वाली हर प्रकार की आवाज़ को दबा देना. चाहे वह ज़मीनी स्तर पर हो या सोशल मीडिया पर. मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को जेल में डालना. पत्रकारों पर फ़र्ज़ी मुक़दमे करके उनकी आवाज़ों को दबा देना.” इसी क्रम में वह आगे जोड़ते हैं, “अगर सरकार लिंचिंग को लेकर चिंतित है तो बताये की पिछले 6 वर्षों में जो लिंचिंग हुई उस पर क्या कार्यवाही हुई, जबकि उनमे से कई ने तो अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति भी की है. लेकिन इसी सरकार के मंत्री उनको फूल-माला पहना कर स्वागत करते हैं.”

वहीं आगरा से आरटीआई कार्यकर्ता पारस नरेश कहते हैं कि अगर सरकार एन्क्रिप्शन ख़त्म करेगी तो व्हाट्सएप जैसे मेसेंजर का उपयोग करने पर विचार ज़रूर करेंगे. व्हाट्सएप अब दैनिक जीवन का हिस्सा बन गया है, तो अगर पूरी तौर पर छोड़ना संभव नहीं भी हुआ तो इसके उपयोग पर सावधानी ज़रूर बरतेंगे. वह कहते हैं, “हमारे लिए तो प्राइवेसी महत्त्वपूर्ण है, अगर प्राइवेसी नहीं रहेगी तो जान को ख़तरा तो हमेशा बना रहेगा. हमारा काम ही सिस्टम की कमियों को उजागर करना है और इस क्रम हम अक्सर सरकार पर सवाल उठाते हैं. किसी भी सरकार को यह पसंद नहीं कि उसकी कमियाँ को कोई उजागर करे.”

दिल्ली में लेबर कोर्ट में अधिवक्ता और मज़दूरों के हक़ के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ने सूर्य प्रकाश कहते हैं की सरकार फेक न्यूज़ और लिंचिंग के आड़ में लोगों की आवाज़ दबाने वाले बदलाव लाने का प्रयास कर रही है. वह कहते हैं, “अगर मैं किसी धरने-प्रदर्शन की जानकारी कहीं रखना चाहता हूँ, और प्रदर्शन के लिए लोगों को इकट्ठा करना चाहता हूँ, अगर सरकार इस भी नज़र रखेगी तो खतरे बहुत बढ़ जायेंगे. ऐसे बदलावों का विरोध किया जाना चाहिए. ऐसे क़ानून जनता को अधिक कमज़ोर और सत्ता के लोगों को अधिक शक्ति देंगे.”

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

बिहार के भागलपुर के आरटीआई कार्यकर्ता अजित सिंह कहते हैं कि अगर निजता नहीं रहेगी तो काम करना संभव नहीं रहेगा. वह कहते है, “अगर मैं अपने क्षेत्र के विधायक या संसद के भ्रष्टाचार का कोई मामला उजागर करना चाहता हूँ, और अगर कोई मेरी हर समय गतिविधि पर नज़र रखने लगेगा तो कैसे संभव होगा कुछ करना. जान को अलग ही हर समय खतरा बना रहेगा. ऐसे बदलावों के बाद तो वह विधायक या संसद तो आसानी से पुलिस से कह कर ऐसा कर सकता है.

बिहार के लगभग सभी जिलों में 2011-2012 में गर्भाशय घोटाला हुआ था. ग़रीबों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत हेल्थ कार्ड दिए गए थे, उनके इलाज के लिए सभी जिलों में डॉक्टरों व नर्सिंग होम भी चिह्नित किया गया था. मरीज़ों के सेहत की जांच व इलाज इसी कार्ड के आधार पर होनी थी. इस बीमा कार्ड के आधार पर भी नर्सिंग होम और डॉक्टरों को भुगतान भी करने का प्रावधान था. सभी तरह के बीमारियों के इलाज के लिए कार्ड के अनुसार अलग-अलग राशि भी तय थी, सर्जरी के मामलों में सबसे ज्यादा भुगतान किया जाता था. इसी राशि को हड़पने के लिए डॉक्टरों व नर्सिंग होम ने अनावश्यक रूप से महिलाओं की सर्जरी की और गर्भाशय निकाल दिए, कई युवतियों के भी गर्भाशय निकाले गए. इस घोटाला को उजागर करने में अजित सिंह ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

वहीं राजीव यादव इस बात को ऐसे समझाने का प्रयास करते हैं कि अगर सरकार आपके घर के अंदर आने तक रास्ता ढूंढ लेगी तो, वहां आप पर निगरानी रखने का इंतज़ाम भी कर ही लेगी.

“अभिव्यक्ति की आज़ादी…”

अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति से जुडी मधु गर्ग भी मानती है कि लिंचिंग जैसी घटना के लिए फेक न्यूज़ से कहीं अधिक ज़िम्मेदार समाज में फैलाया जा रहा ज़हर है. वह कहती हैं कि सरकार आम आदमी के बोलने के अधिकार को कुचलने के प्रयास में ऐसे बदलाव प्रस्तावित कर रही है. वह आगे कहती हैं, “यह कौन तय करेगा कि सोशल मीडिया पर अपलोड होने वाला कौन कंटेंट ठीक है और कौन सा ग़लत. कौन से सन्देश से समाज में अराजकता फैल सकती है और कौन से कंटेंट से नहीं,” वह आगे जोड़ती हैं, “सरकार तो चाहेगी ही कि उसके विचार से सहमति रखने वालों की आवाज़ सामने आये, और असहमति वाली सारी आवाज़ें दबा दी जाएँ.”

वहीं सूर्य प्रकाश अपने मोबाइल में स्क्रीन शॉट दिखाते हुए कहते है, “अभी भी मैं सोशल मीडिया, ख़ास कर फेसबुक पर मज़दूरों से जुड़ी कोई गतिविधि पोस्ट करने का प्रयास करता हूँ तो पोस्ट नहीं फेसबुक के तरफ से पोस्ट नहीं करने दिया जाता है. जबकि हम सब देखते हैं कि सोशल मीडिया पर किस-किस तरह के सन्देश एक वर्ग के खिलाफ पोस्ट किये जा रहे हैं, और उन पोस्ट पर न तो सरकार का ध्यान है और न ही फेसबुक का.”

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

पारस नरेश बताते है कि तक़रीबन 1 वर्ष पहले मैंने आगरा में ही एक शेल्टर होम होने वाली एक लड़की की आत्महत्या की घटना -जिसका लेना-देना एक राजनीतिक पार्टी के नेता से था- को सार्वजनिक करने का प्रयास कर रहा था तो ट्विटर ने मेरे अकाउंट पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. जबकि मुझे नहीं लगता के मैं कोई ग़लत या भड़काऊ जानकारी साझा करने का प्रयास कर रहा था. वह कहते हैं, “जबकि हम सब देखते हैं कि ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया पर कैसे पोस्ट किये जा रहे हैं और कोई कार्यवाही नहीं होती. सोशल मीडिया के ऐसे दिशा निर्देशों में प्रस्तावित बदलाव अगर पास किये जाते हैं तो ऐसे भेदभाव के खतरे और अधिक हो जायेंगे.”

राजीव यादव कहते इस बात को आगे बढ़ाते हुए जोड़ते हैं, “अगर सरकार को नियंत्रण ही करना है तो संसद और विधानसभा में उपयोग हो रही भाषाएँ को नियंत्रित करना चाहिए. जहाँ जय श्री राम और अल्लाह-हु-अकबर के नारे लगाए जा रहे हैं.”

वहीं मधु मानती है कि सोशल मीडिया पर घिरना एक सुनियोजित ढंग से एक वर्ग के खिलाफ फैलाइ जा रही है. हम सब देख रहे हैं कि कोरोना को लेकर जो सन्देश फैलाए जा रहे हैं, उन सभी संदेशों में एक पैटर्न है.

(पांच भागों के क्रम में यह चौथा लेख है)

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